Radhakrishna Prakashan, Delhi, 2020
राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली , 2020
सुप्रसिद्ध साहित्यकार मोहन राकेश के आकस्मिक देहांत के कारण उनका उपन्यास ' काँपता हुआ दरिया ' अधूरा छूट गया था। यह उपन्यास कश्मीर की पृष्ठभूमि में वहाँ के हाँजियों के जीवन- संघर्ष के इर्द-गिर्द बुना गया है। इसे मीरा कांत ने वर्ष 2019 -20 में पूरा किया ।
यह उपन्यास वर्ष 1947 के आसपास कश्मीर के हाँजियों के जीवन, उनके सुख- दुख, कुल मिलाकर उनके समस्त जीवन- संघर्ष पर आधारित है। और उससे भी अधिक यह कथा है हाँजियों के अपने दरिया की, जो उनकी दुनिया है। इस विषय पर लिखी गई यह एक सृजनात्मक और प्रामाणिक कृति है जिसमें कश्मीर की संस्कृति, वहाँ के मुहावरों और घाटी की मिट्टी की खुशबू बसी हुई है। इस उपन्यास को दशकों बाद उसके तार्किक अंत तक पहुँचाने का ज़िम्मा उठाया मीरा कांत ने । इस नाते मीरा कांत 'काँपता हुआ दरिया' की पूरक कथाकार हैं।
अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेले ( 2020 ), दिल्ली में मोहन राकेश के अधूरे उपन्यास ' काँपता हुआ दरिया ' के विमोचन समारोह में इस उपन्यास की पूरक कथाकार डाॅ मीरा कांत के साथ हैं पुस्तक के सम्पादक डाॅ जयदेव तनेजा और प्रकाशक श्री अशोक महेश्वरी, राजकमल प्रकाशन।
'तत: किम' मानव-जीवन और मानव-संबंधों की अनित्य प्रकृति की गल्प-कथा है। सब कुछ पाकर कुछ भी चिरजीवी न पा सकने की व्यथा-कथा। तत:किम का शब्दार्थ करें तो कुछ यों होगा- उससे क्या, उसके आगे क्या? भर्तृहरि ने अपने वैराग्य-शतक में जीवन की एषणाओं की व्यर्थता को इसी तत: किम की टेक से समझा था।
एक दीर्घ अतीत से आच्छादित कानन के अरण्य जैसे जीवन को केन्द्र में रखकर लिखा गया है यह उपन्यास मूलत: प्रेम-संबंधों में पाने, न पाने और पाकर भी न संभाल पाने की अविफल विकलता है जो सुखान्त परिणति में भी प्रतिध्वनित होती रहती है। कानन के माता-पिता का कार्यसाधक गृहस्थ सम्पर्क हो अथवा कानन का संक्षिप्त प्रथम संबंध - वे तत:किम का सूना एकांत देने के अतिरिक्त कोई विशेष आत्मिक भराव नहीं दे पाते। कानन की उजाड़ जिन्दगी की ढलान पर डा. बशीर का लगभग दुर्घटना प्रेरित साहचर्य जो अंतत: दीर्घकालीन सम्बंध की सहमति बन जाता है, वह भी नि:शेष समर्पण की निर्द्वन्द्व स्वीकृति नहीं बन पाता।
कानन की पगडंडी जैसी ज़िन्दगी के समानान्तर ॠचा का जीवन भी इसी तत:किम की सम पर आकर स्तंभित हो जाता है। अपने पति, पुत्र और निजी रचनात्मक संसार में भी तत:किम के निर्वात या शून्य को वह पारस के सान्निध्य से सस्पंद बनाती है पर कामना और कामना के प्रतिबिम्ब की उलझन में घिर कर कराह उठती है - तत:किम!
सम्बंधों के आरोह - अवरोह की संधि पर ठिठके पात्र इसी राग - विराग में उलझे रहते हैं, चाहे वह भावात्मक संबंध का हो अथवा तथाकथित बुद्घिजीवी वर्ग से वैचारिक सम्पर्क का। इस ययौ न तस्थौ मन:स्थिति को एक निरायास संयोजन के तहत निभाते हुए यह उपन्यास ठीक दो भिन्न शैलियों में आगे बढ़ता है। कानन का बचपन, ऋचा से परिचय के आरंभिक दिन किस्सागो शैली में लिखे गए हैं जो हिन्दी उपन्यास के कुछ अच्छे पुराने दिनों की याद दिलाते हैं। परवर्ती भाग के अंश हिन्दी उपन्यास की अंतर्मुखी यात्रा के पड़ाव तय करते हैं। मीरा कांत के गल्प की भाषा अनुभव की शांत अंत:सलिला के अनुरूप काव्यात्मक होने की सीमा तक लयात्मक व बिम्बप्रधान है।
Urf Hitler
Hitlers resides in the realm of history, and their aliases are silhouetted against the landscape of literature. Urf Hitler, a novel by Meera Kant, claims neither political correctness nor exactitude of history. It showcases a world in which the historian’s truth and the writer’s fancy comingle-a fusion of political reality, and creative imagination, a visitation of the alter ego.
Based on the conflict between the spheres of known history and personal life, this narrative transcends the frontiers of political power to discover subtle power equations in personal relations. It reawakens the sepulchral tones of tense family ties-the hidden tomb far beneath the ground whose occupants have grown accustomed to silent wailings. However, that movement is not uncommon, when, listening to others crying, one relives the pain of a past hurt-a kind of journey backwards, contrary to the course of history. It’s a journey into the sub textual tunnel throwing light on fresh nuances that were buried by time and rendered sham.
The mohenjodaros and the Harapas are truths that often surface to assert their authenticity, much like the sunken tombs unearthed, smeared sometimes with blood sometimes with oil. Human memory constantly remembers to forget and forgets to remember. And then, be it Hitler or his aliases, they stay on the horizons of memory like dark spots, and stay long.
पेंगुइन बुक्स इंडिया प्रा. लि.,
नई दिल्ली, २००७
Penguin Books
India Private Limited,
New Delhi, 2007
इतिहास हिटलरों का लिखा जाता है, उर्फ़ हिटलर साहित्य के हिस्से में आते है। मीरा कांत का उपन्यास "उर्फ़ हिटलर" न कोई राजनीतिक दस्तावेज़ है और न शुद्ध इतिहास। यह ऐसा संसार है जहां इतिहासकारों का सच और उपन्यासकार की कल्पना साथ-साथ साँस लेती है। यानी राजनीतिक यथार्थ और सृजनात्मक कल्पना का एकतान हो जाना। ऑल्टर ईगो!
विश्व-गोचर इतिहास और निजी जीवन के द्वंद्व पर आधारित यह उपन्यास सत्ता के रिश्तों से कहीं आगे जाकर निजी रिश्तों में सत्ता के सुराग ढूँढ़ता है। परिवार के गोशों में बसे मकबरों का दर्द उकेरता है। वे मकबरे जो ज़मीन से कहीं अधिक ज़मीन के भीतर होते है। वहाँ के बाशिन्दे जिनकी कराहों को सुनने के आदी हो जाते है। लेकिन कभी-कभी आता है वह पल भी जब किसी दूसरे की चीख-पुकार सुनकर कोई अपने रिसते ज़ख्मों की यादों को समेटना शुरू करता है। यानी एक विपर्यस्त यात्रा। इतिहास से ठीक उल्टी। अतीत की तरफ रोशन होती एक सुरंग जो अंतर्पाठ तक ले जाकर नए ध्वन्यर्थ देती है, जिसे वक्त ने मिट्टी डालकर जानबूझ कर झूठ बनाया था।
सच मोहनजोदारो और हड़प्पा होता है जो अपने मृदभांडों के साथ कभी न कभी सतह पर आ जाता है। ज़मीन के भीतर धँसे मकबरे भी कभी-कभी भरभरा कर उभर आते है तरह-तरह के धब्बों से लिपे-पुते। वो धब्बे कभी खून के होते है तो कभी तेल के। मानव-स्मृति भूल-भूल कर याद करती है और याद करके भूलती जाती है। पर हिटलर हों या उर्फ़ हिटलर उसी स्मृति पर स्याह धब्बों से छा जाते हैं, छाए रहते हैं।
वाणी प्रकाशन
नई दिल्ली, 2009
Vani Prakashan
New Delhi, 2009
'एक कोई था/कहीं नहीं-सा' कश्मीर के गुज़रे हुए ज़िन्दा इतिहास की फ़ुटलाइट में आगे बढ़ने वाला एक ऐसा उपन्यास है जिसमें वहां के सामाजिक-सांस्कृतिक रेशों से बटी रस्सी के माध्यम से एक पूरा युग रिफ़्लेक्ट होता गया है। बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक तक खुली इस रस्सी को मीरा कांत ने शबरी नामक एक संघर्षशील किशोरी विधवा, उसके प्रगतिशील भाई अम्बरनाथ के जीवन-संघर्ष और क्रान्तिकारी समाज-सुधारक कश्यप बंधु की समाजिक चेतना की लौ के सहारे बटते हुए दोबारा इक्कीसवीं शताब्दी तक गूंथा है । इस बुनावट में एक और अहम अक्स उभर कर आया है-कश्मीर में जाग रही नारी चेतना का।
साहित्य,समाजशास्त्र व राजनीति की व्यावर्तक रेखा को धूमिल करता यह उपन्यास कोई राजनीति दस्तावेज नहीं बलि्क राजनीति के निर्मम हथौडों के निरन्तर वार से विकृत किया गया कश्मीर की संस्कृति का चेहरा है। इसके नैन-नक्श बताते हैं कि कैसे कोई जीवन्त संस्कृति सियासी शह और मात की बाज़ी के शिंकजे में आकर एक मजबूर मोहरा बनकर रह जाती है। कश्मीरियत को वहीं के मुहावरों, कहावतों और किंवदन्तियों में अत्यन्त आत्मीयता से पिरोकर लेखिका ने आंचलिक साहित्य में एक संगेमील जोड़ा है।
यह उपन्यास मानव संबंधों की एक उलझी पहेली है। एक ओर यहां अपने ही देश में लोग डायस्पोरा का जीवन जी रहे हैं तो दूसरी ओर आतंकवाद के साये में घाटी में रह रहे लोग अचानक गुम हुए अपने बेटे-बेटियों को तलाश रहे हैं। कुल मिलाकर कश्मीरियों का वजूद आज इसी पुरानी उलटबांसी में बदलकर रह गया है - एक कोई था/कहीं नहीं-सा।
उपन्यास ' हमआवाज़ दिल्लियाँ ' में मीरा कांत ने दिल्ली को केंद्र बनाकर इतिहास और कल्पना के दो छोरों के बीच कथा की डोर बाँधी है। यह डोर लगभग सौ साल की दूरी नापती है-- 1826 से 1927 तक।
सन् 1927 ब्रिटिश हुकूमत के ढोंग की पूर्णाहुति थी यानी नयी गोल इमारत में बैठकर गोल-मोल बातों से दूसरों को चक्कर में डालने का तुरुप का पत्ता! लोकतंत्र के नाम पर यह साम्राज्यवादी ताकतों का वो ताण्डव था जिसे मात देने के लिए तत्कालीन स्वतंत्रताकामी शक्तियाँ दुगने उत्साह से सक्रिय हो उठी थीं। स्वतंत्रता आंदोलन का सहयात्री होता हुआ भी यह उपन्यास ख़ालिस ऐतिहासिक- सामाजिक - सांस्कृतिक धुरी पर घूमते समय-चक्र से उठते गुबार में बनते- बिगड़ते रिश्तों की गल्प- गाथा है।
दिल्ली के स्मारकों के इर्द-गिर्द बुनी इस दास्तान में प्राचीन स्मारक कहीं पड़ाव हैं तो कहीं मंज़िल । उपन्यास का सुरमण्डल है दिल्ली की मिली - जुली तहज़ीब जिसे दिल्ली की ' हो - हो ' बस में सवार होकर नहीं ,अपने पात्रों के साथ गली - कूचों में पैदल चलकर बयाँ किया गया है । इस दास्तानगोई की ज़बान में दो तार की चाशनी है -- एक तार हिन्दी तो दूसरा तार उर्दू का है।
'हमआवाज़ दिल्लियाँ ' का कथावृत्त एकाधिक सत्य-रूपों को साथ लेकर चलने वाला डिस्कोर्स है। इस उपन्यास में दिल्ली को केंद्र बनाकर मीरा कांत ने सत्ता, राजनीति और धर्म की चदरिया उधेड़कर समझने की राह अपनाई है। गुलाम मुल्क में अंग्रेज़ों द्वारा धर्म की आड़ में की जाने वाली सत्ता की राजनीति के छल - छद्म पर सवालिया निशान लगाया है।
Hind Yugm, Delhi 2018
हिन्द युग्म , दिल्ली २०१८
मीरा कांत का गद्य विचारप्रधान है जिसमें भावाकुल तन्मयता के क्षणों में भी वैचारिक तर्क प्रक्रिया बराबर साथ-साथ चलती है । यही कारण है कि उनकी रचनाएँ आखँ मूदँकर किसी वाद विशेष का ध्वजारोहण नहीं करतीं । इस रूप में उनका साहित्य एकांतवादी है । उनकी प्रेम प्रसंगों की कहानियाँ भी इसका अपवाद नहीं हैं | इस संग्रह की कहानियों में भी अनुभूति और विचार तत्व का दोराहा साथ-साथ चलता है जो सही मायने में आधुनिकता का उत्तरोत्तर है । घनघोर यौन-उद्वेलन के झंझावात से पीड़ित कुछ खास तरह की एनडेमिक (स्थान परिमित) कहानियों से ये प्रेम सम्बंधी कहानियाँ वास्तव में बहुत भिन्न हैं।
इस कहानियों में व्यग्र आवेश के भाव बोझिल क्षणों को बहुत सब्र के साथ बेहद महीन काता गया है। यही कारण है कि जितनी बार इन प्रसंगों को पढ़ा जाए इनमें नए अर्थ टिमटिमाने लगते हैं। एक साथ राग और विराग की दो सरगम निभाने वाला यह प्रेम निराली धुन लिए है।
नमन प्रकाशन,
नई दिल्ली, 2009
Naman Prakashan,
New Delhi, 2009
Short Story Collections
किताब घर, नई दिल्ली, १९९८
Kitab Ghar,
New Delhi, 1998
कहानी संग्रह 'हाइफ़न' की कहानियों में स्त्री के प्रति विषमता भरी स्थितियों में उपजे दर्द का प्रवाह है जो मानवीय जीवन मूल्यों की टेक चाह्ता है, सरोकारों ही बाँह थामे हुए। मानवीय संबंधों की जटिलताओं, संघर्षों, पीड़ाओं से जन्मी ये कहानियाँ जिजीविषा की चमकती धूप में साँस लेती हैं, ठहरकर. . . फिर बहने के लिए। कहानियों का आपसी रिश्ता इस बहाव को पुख्ता करता है, एक विस्तार देता हैं।
भावनात्मक गहराइयों के साथ उकेरी गयी मानव-मन की ऊहापोह इनमें अभिव्यक्ति के रचनात्मक आयाम प्रस्तुत करती है। कल्पनाशील शिल्प की सुगंध कहानी को एक अनूठे स्पंदन से भर देती है। भाषा के सहज प्रवाह के साथ बहती कथावस्तु अपने चेहरे का निखार देखती है तो आस पास बिखरे बिम्बों के असंख्य बुलबुलों में।
कुल मिलाकर 'हाइफ़न' की कहानियाँ (काली बर्फ़, दराज़, कहाँ नहीं है मौलश्री! धूप के धब्बे, बाबू जी की थाली, मोज़ेक, डर के पौधे, नीम, रूपोश और हाइफ़न) दस्तावेज़ हैं, स्त्री होने के नाते, साथ ही जड़ों से उखड़ने की टीस समेटे समुदाय का हिस्सा होने के नाते बसे उस दर्द का जो दृष्टि देता है और मन को सीमाओं के संकुचन में नहीं विस्तार में आस्था रखने की राह दिखाता है।
'कागज़ी बुर्ज' की कहानियाँ स्थापित मूल्यों के गिरते बुर्जों पर चिपके कागज़ी पैबंदों के सुराग खोजती हैं। वो बुर्ज चाहे स्त्री को महिमामंडित करने वाली खोखली परम्पराओं की आड़ हों या जीवन-संबंधों की जीर्ण-शीर्ण दंतकथाएं।
मीरा कांत के इस संग्रह की ये कहानियाँ वस्तुतः स्त्री-जीवन और किसी न किसी रूप में मात खाए हुए मानव मन की ऊबड़-खाबड़ संरचना की अनवरत यात्रा है। चाहे भीतर जमी स्मृतियों के किनारे बसा डायस्पोरा का दर्द हो, इतिहास के गर्त में दबी-घुटी दूर से आती कोई आर्त पुकार हो, ज़िन्दगी से धकियाए लोगों के चटखते सपने हों अथवा जीवन-संघर्ष में सामान्य-असामान्य को जुदा रखने वाली लकीर पर चलते हुए लगभग संधि प्रदेश की दुनिया में जा पहुँची किसी स्त्री की बेबस तन्हा ज़िन्दगी हो-ये सब सार्थक पड़ाव हैं उस रचनात्मक यात्रा के जो दुर्गम ऊँचाइयों और गहरी खाइयों के फ़ासले तय करती है।
ये कहानियां आतंक पैदा करने वाली उन प्राचीरों और बुर्जों के लिए कोई अकेली चुनौती न बनकर अनगिनत बंद पलकों को खोलने का आहवान हैं। इनका गोचर-अगोचर पाठ मजबूर ज़िन्दगियों के चेहरों पर लिखे शोकगीतों को मुखर करता है, इस हद तक कि उनका संघर्ष पाठकों के भीतर भी धड़क उठे।
मीरा कांत का गल्प गद्य और पद्य के बीच चले आ रहे सदियों पुराने पुश्तैनी मनमुटाव को भुलाने का एक सफल प्रयास है।
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, २००८
Bhartiya Jnanapith Prakashan
New Delhi, 2008
सामयिक प्रकाशन,
नई दिल्ली 2009
Samyik Prakashan
New Delhi, 2009
कथाकार मीरा कांत की कहानियों का यह तीसरा संग्रह है। पहले से और अधिक रची-पगी भाषा में वह इन ग्यारह कहानियों में अपने साथ बहा ले जाने की सामर्थ्य लेकर उपस्थित हुई हैं। उनका कथाकार यह बखूबी जानता है कि कैसे कहानी को सार्वजनिक संवाद में बदल दिया जाता है। जीवन-अनुभव कथाकार के यहां अनंत हैं। उनका प्रयोग वह कथा में पूरी सावधानी और कुशलता से इस तरह करती हैं कि उपलब्ध यथार्थ के बीच से अपेक्षित यथार्थ का मार्ग बनने की संभावना भी बनी रहे और पात्र हिम्मत भी न हारें।
स्त्री के जीवन से जुङे ज्वलंत प्रश्नों पर रचनात्मक बहस को आमंत्रित करने का माद्दा इन कहानियों में भरपूर है।
हिन्द युग्म, नॉएडा (उ. प्र.), २०२१
Hind Yugm, Noida (U.P.), 2021
' ताले में शहर ' संग्रह में रचनात्मक इत्मीनान से लिखी गईं कुल जमा पाँच कहानियाँ हैं जो भागम-भाग वाले इस ज़माने में भी पाठक को साँस लेने की फ़ुर्सत देकर बेदम कर देने वाली हड़बड़ी से आज़ादी दिलवाती हैं।
इन कहानियों में कहीं मौत के जामे में सौ साल पहले का शहर ताले में बंद हकबकाया- सा है तो कहीं बमों- मिसाइलों से भी अधिक भयावह मानवता- विरोधी किसी वायरस से होने वाले भावी युद्ध का ख़तरा नज़र आता है। कहीं देह के कम्प्यूटर में स्थित मन के साफ़्टवेयर में लगे मानसिक असंतुलन के वायरस से लड़ाई जारी है तो कहीं अंग्रेज़ों की गुलामी तथा अपनी अभिव्यक्त की स्वतंत्रता की जद्दोजहद है। और कहीं मौजूद है समाज की ज़हनियत का शिकार वो औरत जो एक दिन अचानक ख़ुद को बहुत ऊँचा पाती है, इस एहसास के साथ कि लम्बी औरतें समाज को दरकार नहीं होतीं।
उनका कथाकार यह बख़ूबी जानता है कि सुदूर इतिहास की तहों में दुबके बैठे बीते ज़माने को किस तरह बयाँ करना है कि वो आज का सार्वजनिक संवाद बन जाए। तभी ये कहानियाँ बरसों-बरस पहले के समय को वर्तमान संदर्भों के आईने के सामने इस प्रकार रख पाती हैं कि वहाँ अक्स दिखाई देता है हमशक्ल ' आज ' का। जीवन- संघर्ष से छिटके अनुभवों के तहख़ानों से निकलीं अलग - अलग थीम वाली इन पाँचों कहानियों को पिरोने वाली डोर एक ही है -- अपनी- अपनी तरह की स्वतंत्रता का इंसानी हक़ पाने की जी- तोड़ कोशिश।