REVIEWS
Nepathya Raag (Play)
Meera Kant’s ‘Nepathya Raag’ is a well constructed play and fully deserves the first prize it won at the playwriting competition that is organised by the Sahitya Kala Parishad every year.
Romesh Chander
The Hindu, 10 Oct 2003
Meera has successfully used an ancient tale to raise the issue of gender bias.
G. George
The Statesman, 10 Oct 2003
'नेपथ्य राग' एक उज्ज्वल भविष्य का संकेत देता है।
सिद्धनाथ कुमार
समीक्षा, जुलाई-सितम्बर 2004
इस प्रकार के नाटक बार-बार मंचन होने चाहिये और नाटयालेख पर संवाद होना चाहिये। यह नाटक तो अतिकथन और बोझिल संवादात्मकता से भी मुक्त है जो आरोप प्राय: हिन्दी नाटकों पर लगाया जाता है। मीरा कांत भारतीय परम्पराओं के साथ भाषा की लय और संवाद-रचना पर वह अधिकार रखती हैं जिससे 'रंग-मंच का काव्य' और 'आंतरिक शिल्प' का प्रस्फुटन होता है। इस मायने में वह पूर्णत: रंगमंच की भाषा है।
गिरीश रस्तोगी
शब्द शिखर, जून-जुलाई 2005
कोई कृति अपने चरित्रों से पहचानी जाती है और ' नेपथ्य राग ' के चरित्रों की विश्वसनीयता मीरा कांत की एक रचनात्मक उपलब्धि है। मीरा कांत इतिहास के एक काल - खंड विशेष से संबोधित हैं । चौथी - पाँचवीं शताब्दि का विक्रमादित्य- युग अपने ज्ञान- वैभव में यदि उन्हें आकर्षित करता है , तो उस युग की पुरुष वर्चस्ववादी जीवन- दृष्टि के तनाव से भी , वह एक विरल शालीनता से प्रतिकृत होती हैं। वह किसी व्यक्तित्व का हनन किए बिना उसके भीतर सक्रिय अंतर्विरोधों को प्रत्यक्ष करती हैं। वे इन इतिहास- पुरुषों की मर्यादा की रक्षा करती हुई उनकी विडंबनाओं को अनावृत करती हैं ।
व्योमेश शुक्ल
नटरंग - 78 , जून 2006
मीरा कांत नारी विमर्श की गंभीर एवं संवेदनशील नाटककार हैं। इनकी सोच का केन्द्रीय-बिन्दु यह है, कि देश-काल चाहे कोई भी हो, बुद्धिमती-विदुषी स्त्री को पुरुष समाज कभी बर्दाश्त नहीं कर पाता। आज के आक्रामक स्त्री-विमर्श/व्यवहार और स्वछंदतादायी आधुनिकता या उत्तर-आधुनिकता के बावजूद बुनियादी स्थिति में कोई मूलमूत अन्तर नहीं आया है। हाँ, समयानुसार पुरुष द्वारा स्त्री को अपने हक में इस्तेमाल करने के तरीके और तेवर ज़रूर कुछ बदल गए हैं।
जयदेव तनेजा
रंग प्रसंग, जुलाई-सितम्बर 2007
जहाँ तक भाषा, संवाद, संरचना और शिल्प का प्रश्न है , आज के नाट्य रचना परिदृश्य में ' नेपथ्य राग ' को लगभग एक उपलब्घि कहा जा सकता है। खना की ज़बान लोगों ने काटी या फिर अपने परिवार एवं श्वसुर को अपमान से बचाने के लिए स्वयं काट ली या फिर अपने नाम, सम्मान और अहंकार को बचाए रखने की खातिर उसके गुरु एवं श्वसुर वराह मिहिर ने ? ये तीन वर्जन रशोमन की याद दिलाते हैं । जयदेव तनेजा
आधुनिक भारतीय नाट्य - विमर्श , राधाकृष्ण प्रकाशन, 2010
मीरा कांत आज की एक महत्वपूर्ण नाटककार हैं जिन्होंने स्त्री भाषा को सशक्त रूप प्रदान करते हुए ' नेपथ्य राग ' की खना को ऐतिहासिक युग से आधुनिक युग की यात्रा कराते हुए आधुनिक स्त्री की पीड़ा को व्यक्त किया है। खना की पीड़ा पुरातन युग की पीड़ा ही नहीं रह जाती बल्कि आधुनिक युग की त्रासदी को भी साकार कर देती है।
हर्ष बाला
संवेद - 72 , जनवरी 2014
मीरा कांत के इस नाटक के बहाने भुवनेश्वर फिर फोकस में है, उनके निजी जीवन के बारे में फैलाई दंतकथाओं से दूर यह नाटक उनके विचार पक्ष को जानने-दिखाने की एक सार्थक व मूल्यवान कोशिश है।
सुधीर विदयार्थी
अमर उजाला,बरेली, 14 अप्रैल 2006
'भुवनेश्वर दर भुवनेश्वर' में मीरा कांत का लेखन त्रिआयामी विशेषताओं को खोलता है। पाठक यह तय नहीं कर पाता कि भुवनेश्वर की जीवनी पढ़ रहा है या भुवनेश्वर का यह नाटक या फिर मीरा कांत की रचना और यही रचना की सबसे बडी ताकत भी है। अपनी जटिलताओं के बीच लेख और लेखक की संवेदनाओं को भीतर समाए इस कृति को अदभुत कहा जा सकता है।
राजेश कुमार दुबे
अक्षर पर्व, मार्च 2006
नाटककार ने यथार्थ और फैंटेसी तथा अतीत और वर्तमान के कल्पनाशील ताने-बाने से एक दिलचस्प और उत्तेजक रंगमंचीय नाटक की रचना की है।
जयदेव तनेजा
रंगप्रसंग, जुलाई-सितम्बर 2007
ऐसा लगता है मानो मीरा कांत के भीतर भुवनेश्वर कहीं गहरे जीवित हैं जिसकी आह उनके शब्दों में रच बस कर प्रतिध्वनित होती है। मीरा कांत भुवनेश्वर की संवेदना को अपनी आत्मा में इस तरह उतारती हैं कि इन दोनों की संवेदना का भेद मिट जाता है और जक्सटा पोज़िशन की तरह दिखने लगता है जिसे लवण-नीर संयोग कह सकते हैं।
इज़हार अहमद नदीम
शब्द शिखर, जनवरी 2007
वक्त के बदलाव और स्त्रियों के दखल के साथ हिन्दी नाटक में भी बदलाव आ रहे हैं। मीरा कांत इस का प्रमाण हैं। नाटक न तो ऐतिहासिक है, न ही इसकी ऐतिहासिकता महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण है स्त्री प्रश्न जिसे अनदेखा किया जाता रहा है। इस दृष्टि से मीरा कांत ने नाटक के क्षेत्र में अहम हस्तक्षेप किया है।
राजकुमार
इंडिया टुडे, 4 अप्रैल 2007
मीरा कांत का नाटक 'कन्धे पर बैठा था शाप' स्त्रीवादी दृष्टि से लिखा गया है। सिर्फ़ फ़ैशन या चमक का मामला नहीं है बल्कि अनुपस्थित को उपस्थित करने, छुपे प्रंसगों को सामने लाने और हाशियाकृत को केंद्रकृत करने वाला है। कह सकते हैं नाटक मैं 'पैराडाइम शिफ़्ट' है। नाटक के फोकस या केन्द्र बिन्दु बदलने से पाठ बदल रहे हैं।
राजकुमार
लोकायत, 16-31 दिसंबर 2007
मीरा कांत अपने नाटकों का विषय खोजने इतिहास और मिथकों की धरोहर में चली जाती हैं, किन्तु ठीक प्रसाद की ही तरह उनका उददेश्य भी इतिहास का वर्णन करना नहीं है, अपितु वे तो इसके माध्यम से वर्तमान और उससे जुड़े कई संदर्भों को अधिक स्पष्ट रूप में प्रस्तुत करती हैं। उत्तर आधुनिक शैली में कहें, तो यह इतिहास और मिथक का पुनर्पाठ है।
ज्योति चावला
हिन्दुसतान, 1 अप्रैल 2007
Srinagar born author Meera Kant’s new play is as much a dirge for the dispossessed Kashmiri people as a paean to the resilience they continue to display after decades of violence and strife in their homeland.
Kavita Nagpal
Asian Affairs, May 2005
True after Mohan Rakesh there was a void for some time but there are many upcoming playwrights joining their ranks is Meera Kant. . . . Meera Kant’s ‘Kaali Barf’ is a poignant play built around the plight of displaced Kashmiris.
Romesh Chander
The Hindu, 25 Feb 2005
The play brings out hopes and fears of the Kashmiri Diaspora. . . . With an idea of reaching out to the common man, this play has endeavoured to strike a special balance by expressing its dialogues in the common tongue with a liberal sprinkling of the vernacular that brings with it the aroma of the valley’s saffron.
Aruna Bhowmick
Sahara Times, 12 March 2005
Dr. Meera Kant’s play ‘Kali Barf’ (Black Snow) is a powerful tragedy with long episodes of pain, intercepted by short ones of hope and happiness. It also reflects the invidious struggle in the hearts of Kashmiri Pandits who still have faith in the innate characteristics of Kashmiriyat and lingering hope in humanness and lofty Kashmiri mental make-up.
D.P. Bhan
Kashur Gazette, 21-27, May 2005
Emotion is the central chord in the story, nostalgia tinged with tender love and loss on the mind of every character.
Aruna Bhowmick
The Statesman, 4 March 2005
नाटक की विशेषता यह है कि उसमें एक बात आहिस्ता से कही गयी है। बगैर किसी राजनैतिक कमेंट या उत्तेजना के मीरा कांत मानो एक यथार्थ के संवेदनात्मक पहलू को हमारे सामने लाती हैं। वे हालात की निराशा के बावजूद उम्मीद को अपने कथ्य में शरीक करती है। नाटक का शीर्षक इसी उम्मीद का एक बिंब हैं। सूफियाना धुनों से युक्त धनंजय कौल के संगीत के ज़रिये वे उस कश्मीरियत का मानो एक वातावरण बनाते हैं जिसका ज़िक्र नाटक में कई मौकों पर आता है। वे विषय के तर्क को इस वातावरण के ज़रिये एक प्रवाह में बदलते हैं, यह उनकी उपलब्धि है। सेट में दो अलग-अलग परिवेशों और समय-प्रसंगों के लिए एक उपयुक्त कल्पनाशील सज्जा थी। अभिनय, प्रकाश योजना आदि में भी मुश्ताक की निर्देशकीय छुअन स्पष्ट दिखाई देती है।
संगम पांडेय
जनसत्ता, 21 फरवरी 2005
रिश्तों की गहराइयों को नापता 'ईहामृग'।
नवभारत टाइम्स, दिल्ली
27 दिसम्बर 2002
सत्य और मिथ्या के बीच नारी मन की अन्तर्व्यथा 'ईहामृग'।
दैनिक मध्यांचल, उज्जैन
9 नवम्बर 2003
नाटक पंचतत्वों में संतुलन के सिद्धांत के इर्द-गिर्द घूमकर मानव स्वभाव व संबंधों की गहराई नापता है। नाटक में रागात्मक संबंधों के माध्यम से इन विचार बिंदुओं की लय है 'ईहामृग'। मानव संबंधों की गहराइयों को समझाने वाला यह नाटक अत्यंत ही रोचक है।
दैनिक भास्कर, उज्जैन
8 नवम्बर, 2003
खुले रंगमंच पर बड़े दर्शक वर्ग के समक्ष दार्शनिक सवालों से जूझते हुए 'ईहामृग' का मंचन क्लासिकी आयोजन में आज के हिन्दी रंगकर्म की दस्तक का प्रतीक बनकर आया, जिसने प्रेक्षकों के मन को थोड़ा मथने में कामयाबी पाई और क्लासिकी नाटय और समकालीन रंगानुभव के बीच संचरण की पुलक भी प्रेक्षकों को दी।
अशोक वक्त
नई दुनिया, उज्जैन
9 नवम्बर 2003
From portraying the orientation and backdrop of present day Kashmir, the play with broaden reference touches at its far end the ‘global village’ and exposes the so-called benign designs of the super power. The pain of Sateesar (Kashmir) is seen spread all over the globe.
Lalit Gupta
Daily Excelsior, Jammu
6 Feb 2005
Rangyug Theatre group staged Meera Kant’s Hindi play ‘Vyatha Sateesar’ at Abhinav Theatre here today. . . . The play brought to fore the very plight of Kashmiri Pandits who had to migrate from Kashmir.
State Times, Jammu
6 Feb 2005
मीरा कांत के ये नाटक किताबी नहीं हैं । ये स्त्री विमर्श के किसी सूत्र को पकड़ कर भी नहीं रचे गए हैं। इनमें वर्चस्वी संस्कृति के आलोचनात्मक पाठ की गहरी अभिलाषा के साथ ही साहचर्य और प्रेम को पुनर्परिभाषित करने की छटपटाहट भी है। ' गली दुल्हनवाली ' , ' धामपुर ' और ' कागज़ी बुर्ज ' अपने कथानक और चरित्रों में चाहे कितने ही अलग हों , इनके भीतर बहती ' दुःख नदी ' इन्हें जोड़ती है।
जितेन्द्र श्रीवास्तव
परिकथा , मई- जून 2013
मीरा कांत के इन नाटकों को पढ़ते हुए देखने का सुख भी मिला। अक्सर नाटकों को पढ़ते हुए बीच के डिटेल्स बहुत प्रिय नहीं लगते हैं। वे ' दृश्य ' का अंग होते हैं इसलिए मंच पर खूब शोभते हैं। सामान्यतः पाठक कहानी पढ़ना चाहता है। उसकी रुचि रंगनिर्देशों में नहीं होती लेकिन मीरा कांत के नाटकों में रंग संकेत कथानक का अविभाज्य हिस्सा हैं। कथानक का प्रभाव उनसे गलबहियाँ करके ही पूर्ण होता है। उनके बिना बात पाठकों और दर्शकों तक पहुँच न सकेगी । इन नाटकों की भाषा इनको कलात्मक और अर्थगत ऊँचाई प्रदान करती है। निश्चय ही ये नाटक भारतीय समाज और हिन्दी रंगमंच के लिए बेहद उपयोगी हैं।
जितेन्द्र श्रीवास्तव
परिकथा, मई-जून 2013
जो औरत अपने हक के लिए या तो ' भीख ' या फिर ' चीख ' के ही नुस्खे आज़माती रही , वही इन पुराने टोटकों को एक तरफ कर अपने आँचल को परचम बनाकर अपनी - सी सताई हुई जाने कितनों के लिए ' घोषणापत्र ' बन जाती है।
कविता भारत
नटरंग- 96 , जून 2014
स्त्री विमर्श और नारी के सशक्तीकरण की दृष्टि से मीरा कांत की भावना, सोच, समझ और नज़रिए में लगातार बदलाव आ रहा है। समय के साथ-साथ उनके सपने और सच भी बदल रहे हैं। ... इस दृष्टि से मीरा कांत अपने नए नाटक ' उत्तर प्रश्न ' में स्त्री की पहचान, शक्ति और योग्यता के प्रति और भी आस्थावान और आश्वस्त दिखाई देती हैं। इस नाटक की नायिका यशोमती बाहरी और भीतरी तमाम विरोधी ताकतों के सामने चट्टान की तरह दृढ़- संकल्प खड़ी दिखाई देती है। भविष्य चाहे जो भी हो , लेकिन अपने वर्तमान में वह मंच के बीचोंबीच पूरे आत्मविश्वास और अदम्य साहस के साथ पुरुष वर्चस्व के समक्ष एक विकट चुनौती बनकर खड़ी है। वह स्त्री विमर्श का एक बिल्कुल नया आयाम लेकर उपस्थित है।
जयदेव तनेजा
आधुनिक भारतीय नाट्य- विमर्श
राधाकृष्ण प्रकाशन, वर्ष 2010
इस नाटक में मीरा कांत ने हुमांयू के जीवन के अनछुए पहलुओं को सामने लाने की कोशिश की है जो एक ओर शायरी, ज्योतिष, सूफ़ी-संतो ओर आध्यात्मिक चिंतन के लिए व्याकुल था और दूसरी ओर हिन्दुस्तान फ़तह करके एक पुत्र और एक पिता की ज़िम्मेदारी निभाने के लिए छ्टपटा रहा था। इस दृष्टि से ऐतिहासिक होकर भी इसके पात्रों का शुध्द ऐतिहासिक न होना और लेखिका का युगबोध इसमें लक्षित किया जाना लेखकीय कुशलता और उनके युगीन संवेदना के संवहन का परिचायक है।
रीता सिन्हा
जनसत्ता, 16 नवम्बर 2008
दिल्ली में हुमायूं के मकबरे के पास कोने में एक छोटा-सा मकबरा है जिसे हुमायूं के हज्जाम(नाई) का मकबरा माना जाता है। इस पात्र के ज़रिए भी मीरा ने हुमायूं के दिल की दुनिया के छोटे से गवाह को दर्शकों के सामने रखा है।
विनीत उत्पल
राष्ट्रीय सहारा, 15 मार्च 2009
हुमायूँ की मृत देह को छिपाकर राज्य भर में मिथ्या प्रचार , पंजाब से सुदूर पश्चिम की ओर बढ़ते पुत्र अकबर को पिता की मृत्यु की ख़बर देकर वापस न बुला पाने की बेबसी , हिन्दुस्तान में अराजकता फैलने के डर की शंका - आशंकाओं के बीच हमीदा बानो के साथ तरगी बेग द्वारा सत्तरह दिनों तक हिन्दुस्तान की सत्ता और अवाम को सँभाले रखने की जद्दोजहद एवं राजनीतिक पेचीदगी -- राजनीति और राजनय की कभी न मिलने वाली दो समांतर रेखाओं का रेखागणित बन जाता है , जो अतीत ही नहीं वर्तमान का भी यथार्थ है।
एम . हनीफ़ मदार
वर्तमान साहित्य, फरवरी 2010
Meera kant enjoys playing with time, but this does not dilute her ability to potray both the past and the present with dramatic immediacy and vividness.... Meera Kant's nuanced potrayal of the emperor, in the final analysis, Huma ko Ud Jane Do is not merely about Humayun and Hamida, it is also about the larger question of relationship between the individual and power, politics and destiny.
Ranjana Kaul
The Book Review, Feb, 2011
In this play she has touched upon a topic that many writers would not dare to take up. And instead of sensationalising the theme, of which there was every possibility, she has dealt with the issue with a great degree of sensitivity and compassion. This is what makes the play a very passionate portrayal of a topic that demands our serious attention.
Ravinder Kaul
Daily excelsior, 19 Feb. 2008
रोज़ाना की ज़िन्दगी के टुकड़े से नाटक कैसे उगाया जा सकता है , यह देखना हो तो इससे बेहतर उदाहरण नहीं मिलेगा ।
प्रेम पाल शर्मा
भारतीय रेल, जून 2012
'अंत हाज़िर हो ' नाटक में दुखांत स्थितियों की नीरव कालिमा को उभारने के लिए सायास हास्य- विनोद का वातावरण तैयार किया गया है। नाटक के अंत का ' पैथाॅस ' और 'एंटी क्लाइमैक्स ' इन्हीं हल्के- फुल्के संवादों का ' एंटीथीसिस ' है। शिल्पा और उसकी छोटी बहन की त्रासदी के पूर्व संकेत भी इस हास्य- विनोद के बीच उपस्थित हैं। स्थिति की त्रासदी , परिस्थितियों की विवशता , पात्रों की कुंठा और झुंझलाहट को लेखिका अपनी शब्द- शक्ति के सामर्थ्य एव॔ समृद्धता से सफलतापूर्वक संप्रेषित करती हैं।
ममता धवन
हिंदी नाटक : नई परख
संपादक : रमेश गौतम
स्वराज प्रकाशन, 2010
'आउटडेटेड' होने का खतरा उठाकर मीरा कांत ने जिस तरह से घरेलू और निजी ज़िन्दगी में बनने वाले वर्चस्व और सत्ता के दुरुपयोग पर सामाजिक यथार्थ को रचा है, बहुत ही महत्वपूर्ण है।
राज कुमार
इंडिया टुडे, 30 जनवरी 2008
यह लघु उपन्यास स्त्री - पुरुष के कृत्रिम बंटवारे से विरत होकर व्यापक मानवतावादी दृष्टि से मानव त्रासदी का अवगाहन करता है . किसी पंथ विशेष का चुल्लूभर आचमन नहीं .
सुषमा भटनागर
लोकायत, 1 - 15 मई 2008
बड़े - बड़े नारों , संघर्षों और पूरी दुनिया को उलट - पुलट देने वाली दृष्टियों के इस दौर में परम्परागत हिटलरी की भेंट चढ़ती मनुष्यता और पारिवारिकता को बचा लेने की चिंता से प्रेरित मीरा कांत का यह उपन्यास सही मायने में हिंसा और स्वतंत्रता के दमन को एक ही बिंदु पर रखकर मानवीय त्रासदी के एक बड़े प्रश्न को विमर्श में लाने का गंभीर उद्यम करता है .
ज्योतिष जोशी
परिकथा, जुलाई-अगस्त 2008
स्त्री जीवन से जुड़े ज्वलंत प्रश्नों पर रचनात्मक बहस को आमंत्रित करती प्रतीत होतीं हैं मीरा कांत की कहानियां .
प्रेमा नेगी
समकालीन भारतीय साहित्य, सितंबर-अक्टूबर 2009
संग्रह में स्त्रियाँ अलग - अलग परिवेश , वर्ग और पीढ़ी से हैं . कई कहानियों में एक ही परिवार की तीन -तीन पीढ़ी की औरतों के साझे सपने , उत्पीडन और साझे संकल्प का मार्मिक वर्णन है .निश्चित रूप से इन्हीं के बीच से होकर जीवन-सत्य की खोज और परीक्षण की कोशिश है , जिसमें संग्रह की सफलता असंदिग्ध है .
निरंजन सहाय
जनसत्ता, 15 नवम्बर 2009
संग्रह की सभी कहानियों में ज़िन्दगी की पूरी संजीदगी उपन्यास के विराट कलेवर में विस्तार पाती सी दिखाई देती है। जीवन की त्रासदियों, तल्खियों के बीच भी इनके पात्र पूरी संवेदना और मानवीय जिजीविषा से सिक्त ज़िन्दगी से पलायन नहीं करते बल्कि उसके बीच से ही अपने तरीके से रास्ता तलाश कर औरों के लिए भी मार्ग बना देते हैं। एकान्विति की ऐसी सघनता बहुत ही कम कहानियों में उतरते दिखाई देती है।
चंद्रकला
समयान्तर, अक्टूबर 2008
कविता और गद्य के बीच की पारम्परिक दीवार ढहाती इस गरिमामयी भाषा की बदौलत विचारों के प्रक्षेपण के दौरान भी कहानियों का कहानीपन अक्षुण्ण रहता है। निस्संदेह इन कहानियों से होकर गुज़रना एक अनुभव से होकर गुज़रना है।
डॉ विजय प्रकाश
परिकथा, नवंबर-दिसंबर 2008
आठ कहानियों के इस संग्रह में मीरा कांत ने सच का निर्वसनित रूप उजागर किया है।
जनार्दन मिश्र
इंडिया न्यूज़, 26 जुलाई से 1 अगस्त 2008
मीरा कांत की भाषा पर बेजोड़ पकड है . यही वजह है वह शब्दों का जाल बुनकर पाठकों को संवेदना के स्तर पर झकझोरने में कामयाब होती हैं .
नविता
समकालीन भारतीय साहित्य, नवंबर-दिसंबर 2009
चाहे स्त्री विमर्श हो या विस्थापन की पीड़ा, इतिहास की रिसती दीवारों के बीच घुटती स्मृतियां हों या आज की स्वार्थ लोलुपता और सामंती मनोवृत्ति के कारण लरजती मौन आहें- मीरा कांत की कहानियाँ इनकी तहों में जाकर दृष्टि से सूक्ष्म अवलोकन करती हैं। पहले नारियां नारी सम्बन्धी बातों को कहने एवं लिखने में कितनी हिचकिचाहट महसूस करती थीं ,देखने - सुनने वालों को पता है पर अब तो खुले रूप में जिस तरह से वर्णन करतीं हैं , पुरुष दांतों तले अंगुली दबाने पर मजबूर हो जाता है।
रीता सिन्हा
राष्ट्रीय सहारा, 15 फ़रवरी 2009
मिथक , इतिहास और स्मृति का बोध उन्हें समकालीन रचनाकारों से अलग करता है और नयी पहचान के तौर पर उपस्थित करता है .---यहाँ भाषा भावों के अनुरूप बनती भाषा नहीं है बल्कि भावों को लयबद्ध प्रस्तुत करती है .
रीनू गुप्ता
संवेद, जनवरी 2010
इस कहानी को पढ़कर 1920 की महामारी और राॅलेट एक्ट का विरोध एक कोलाज के रूप में उभर कर सामने आता है जो 2020 के कोलाज से हू -ब - हू मिलता - जुलता है। यह कोलाज कहानी की बहुत बड़ी ताकत है। मीरा कांत की यह कहानी आज के समय की बड़ी कहानी है और बड़ी कहानी वह होती है जिसे बार- बार पढ़ने की इच्छा हो और हर बार पढ़ने पर उसके नए अर्थ खुलें।
हरियश राय
परिकथा, नवंबर- दिसंबर 2020
मीरा कांत की यह कहानी एक शहरी जीवन से निकल कर आई कहानी भर नहीं है। बल्कि इस कहानी में आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितयों को बहुत महीनी से रचा गया है। इस कहानी का फ़लक इसके हरेक पात्र की तरह बड़ा है। स्पैनिश फ्लू जैसी बीमारी के बीच में से लेखिका ने जिस तरह साबिर , वहीद, जलाल आदि के जिन कठिन दिनों को हमें दिखाने की कोशिश की है , वह विस्मित करता है।
शहंशाह आलम
दोआबा 36, जनवरी- मार्च 2021
ताले में शहर शीर्षक ही इतना सारगर्भित है कि इससे आगे कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं है। जम्मू-कश्मीर इस शीर्षक से अछूता नहीं है।
गोकर्ण सिंह
दोआबा 36, जनवरी-मार्च 2021
Meera Kant's Novel Ek koi tha/Kahin nahin-Sa, brings out the similarity between those who were left behind in the valley and those who have come out and are trying to build a life. Their pain of not being able to arrive. Those who had to leave are living a life in a diaspora and those left behind are forced to live in the constant fear of terrorism. Those in the camps, ironically have to be identified by a C/o Refugee Camp... address in their own country, and those, who are still in the valley are looking for their lost Kith and Kin through organizations like, 'Association of Disappeared Persons'. It is ironical that a place which reminded of heaven on earth seethes with anguish and pain of human lives.
Meenakshi Khar
Hindi, A journal of Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya
Wardha, Oct-Dec 2010
यह उपन्यास उस कश्मीरियत को खोने की पीड़ा है जो सत्ता ,राजनीति एवं आतंक की भेंट चढ़ गयी . यहाँ इतिहास के तह में अनदेखी की जाती पीड़ा एवं सिसकियाँ हैं .
राजीव कुमार
हिन्दुस्तान, 12 सितम्बर 2010
यह उपन्यास कश्मीरी जनजीवन की बाहरी - भीतरी तब्दीलियों का जीता - जागता आख्यान है . जड़ों से विलग सूखे पत्तों की तरह यहाँ -वहां उड़ रहे उजड़े कश्मीरी जन कब तक जिंदा रह पायेंगे अपनी संस्कृति के साथ ? ऐसे ज़रूरी सवाल अंत तक हमारा पीछा नहीं छोड़ पाते .
रजनी गुप्त
इंडिया टुडे, 8 दिसंबर 2010
मीरा कांत मानवीय संवेदना की गंभीर रचनाकार हैं . उनका यह तीसरा उपन्यास स्त्री लेखन की उस सीमा पर प्रहार करता है जो मानकर चलता है कि स्त्री विमर्श खुद स्त्री लेखन की सीमा बनता है और स्त्रियाँ गंभीर मुद्दों को उतनी गंभीरता से नहीं ले पातीं.
रीनू गुप्ता
परिकथा , सितंबर-अक्टूबर 2010
एक लेखक के रूप में उपन्यास का शीर्षक ' एक कोई था/ कहीं नहीं-सा ' से मीरा कांत जैसे अपनी पीड़ा और झटपटाहट को ही व्यंजित करती हैं, लेकिन लेखिका के इस दर्द में न तो कोई नाॅस्टेलजिया का दखल है और न ही कैसी भी भावुकता का। बेहद संतुलित,वस्तुगत एवं विश्वसनीय रूप में बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक से वह कश्मीर की अपनी भावात्मक यात्रा शुरू करती हैं और प्रायः अस्सी वर्षों के इस काल - खंड को चंद परिवारों एवं सामाजिक गतिविधियों की उपस्थिति के द्वारा प्रस्तुत करती हैं। स्वाधीनता आंदोलन की आहटें, बहुविध सुधारवादी कार्यक्रम और स्त्री-चेतना एवं परिवर्तन की सुगबुगाहटें आदि उपन्यास में कुछ इस तरह विन्यस्त हैं, जो टिप्पणियों के रूप में नहीं ,पात्रों के जीवन के घटना- प्रसंगों को आधार बनाकर अपना कार्य करती हैं। वस्तुतः इस विन्यास में ही रचना की सफलता निहित है।
मधुरेश
समीक्षा, जुलाई- सितंबर 2012
मीरा कांत ने 100 साल की दिल्ली की चमक, धूल , ज़ख्म दिखाने की सफल कोशिश की है। भाषा की सम्पदा का भरपूर उपयोग हिन्दी उर्दू हिन्दुस्तानी के रूप में किया है। वह युग की भाषा के प्रारूप पर काम करती नज़र आती हैं।
तरसेम गुजराल
परिकथा, जनवरी- फरवरी 2019
मीरा कांत की किताब 'हमआवाज़ दिल्लियाँ' ' एक ऐसा ही खूबसूरत खत है जो उन्होंने दिल्ली के नाम लिखा है। मीरा ने ये खत बहुत प्यार से लिखा है और पढ़ने लायक भी है।
Book Review: हमआवाज़ दिल्लियाँ - मीरा कांत (Humaawaaz Dilliyan by Meera Kant)